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Wednesday, March 23, 2011

poem 1: उसकी एकलौती निशानी


वो कांपती ठंढ में
जग से टुटा खुद से हारा
इंसान नहीं कहलाता वो
उसे कहते हैं सब बेचारा

पता नहीं खुद का नाम उसे
जनम उसे दिया था किसने
ख्वाब कभी देखा नहीं
नींद नहीं पाई थी उसने

न ख़ुशी थी उसके चेहरे पर
न कभी कोई गम की स्याही
हक़ कभी जताया नहीं कभी 
खुद की ज़िन्दगी हुई परायी

महसूस किया कभी नहीं वो
कौन था अपना कौन पराया
साडी जिंदगी वो अकेले काटा
पाया नहीं कभी कोई भी साया

उसकी आँखें कहती थी
जुग जुग की अनमोल कहानी
यही है उस बेचारे की कथा
मृत शरीर उसकी एकलौती निशानी 

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