खुशियों से है बहुत दूर
फाटे कपडे और मजबूर
१ वक़्त कि रोटी पाए
बेबस होता है १ मजदूर
खुश दिखना भी उनकी
आदत में होती है मशगुल
खुश करने कि चाहत में
जाए वो खुद के गम भूल
ना कोई घर,ना कोई दिखाना है
बढता है वो धीरे धीरे
ऐसे ही आगे जाना है
उसके सर ना छत पक्के का
ना ही प्यार का साया है
कम करना पेट के खातिर
महँ मजदूर कहलाया है
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