उम्मीद कि सरे बंधन को छोडके
दुनिया से रिश्ता अब तोड़ के
मुसाफिर गलियों में निकला
बिना किसी सपने का
मंजिल ने अपनी दुरी बढाई
और रस्ते कि कठिनाई
फिर भी वो उम्मीद ना छोड़ा
नहीं कभी वो मुह मोड़ा
गलती पर गलतियाँ
फिर मांगी सबमे माफ़ी
उसने माफ़ भी किया
पर क्या ये थी उसकी इंसाफी
हर क्षण हर पल
जीना मुश्किल सा लगे
उन्होंने तो भाला ही क्या मेरा
उन्हें क्या दिया मैंने
दगे सिर्फ दगे
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