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Friday, March 4, 2011

सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात अप्रियं सुखं


कहा गया है सत्य बोलो और प्रिय बोलो. अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए. सत्य बोलना स्वयं में एक अत्यंत ही दुष्कर कार्य है. सत्य हमेशा कड़वा होता है. कड़वा सत्य शायद ही कोई हज़म कर पाता हो. तो क्या मूक रहा जाय. मौनव्रत धारण करना तो अत्याचार , अन्याय और भ्रष्टाचार को मौन समर्थन देने के समान होगा. जैसा अभी हाल में 2G स्पेक्ट्रम घोटाले में ए. राजा देश और प्रजा को 2 वर्ष से लूटते रहे और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और 10 जनपथ वाली त्याग, तपस्या की प्रतिमूर्ति बलिदानी महादेवी मूकदर्शक बने रहे. बिचारे प्रधानमंत्री जी अप्रिय सत्य बोलना नहीं चाहते हैं, इसलिए मौनव्रत धारण किये रहते हैं. यह भी कहा जाता है कि अगर किसी के प्रति अन्याय होता है और आप चुप रहते हैं तो अगली बारी आप की है.
सत्य वह जो प्रिय हो या सत्य को प्रिय बनाकर बोल पाना तो बहुत ही मुश्किल काम है. अगर सत्य को प्रिय बनाने के लिए उसमें मिलावट कर दी जाय तो वह सत्य रहेगा ही कहाँ. दुनिया में शायद ही ऐसा कोई हो जो हमेशा सच ही बोलता हो.
मेरे विचार में सम्पूर्ण सत्य तो कुछ होता भी नहीं है.. सत्य और असत्य के मध्य में अर्ध सत्य और अन्य कई शेड्स ( Shades ) होते हैं. आज सत्यवादी हरिश्चंद्र या धर्मराज युधिष्ठिर का युग तो रहा नहीं. जिस युग में जी रहे हैं उसमें महान वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत ‘ Struggle for existence and survival of fittest and strogest ‘ लागू होता है. इसमें अपने स्वार्थ सर्वोपरि होते हैं. हरेक का अपना अपना सत्य होता है जो स्वार्थ से प्रेरित होता है. ‘ सुर नर मुनि सबकी यह रीती, स्वारथ लागि करैं सब प्रीती
‘.
सत्य और असत्य के बीच अत्यंत ही बारीक विभाजन रेखा होती है. अर्ध सत्य की अपनी उपयोगिता है. ‘ महाभारत का ‘ अश्वत्थामा मरो, नरो वा कुंज़रो’ ‘ प्रसंग इस बात को साबित करता है. अश्वत्थामा मारा गया नर या हाथी. महाभारत में ऐसे अनेक प्रसंग आते हैं जिसमें श्रीकृष्ण नें अपने सच को स्थापित करने के लिए छल, कपट और चालाकी का सहारा लिया. तो क्या सही उद्देश्य के लिए असत्य बोला जाय तो वह सत्य बन जाता है. अर्धसत्य जो अपने हितों के माफ़िक़ आता है. उसे तोड़ मरोड़कर, नमक मिर्च लगा कर, मसालेदार बनाकर परोसा जा सकता है. . पूर्ण सत्य में ‘ मैनिपुलेट ‘ करने की गुंजाइश कम होती है .केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर पी जे थामस कि विवादस्पद नियुक्ति को लेकर सत्य या झूठ के इतने रूप प्रकाश में आये हैं कि उसमें भेद करने में विभ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है. कभी कहा गया कि श्री पी जे थामस की पृष्ठभूमि शुद्ध अमूल दूध से एकदम धुली हुई है, उनके विरुद्ध कोर्ट केस की कोई जानकारी नहीं है. नेता विपक्ष श्रीमती सुषमा स्वराज द्वारा इस बात को बताये जाने को कि श्री थामस के विरुद्ध केरल कोर्ट में आपराधिक मामला चल रहा है, छिपाया गया. कहा गया कि उनकी सभी आपत्तियों को नज़रंदाज़ करके केवल और केवल श्री पी जे थामस को ही केन्द्रीय सार्कता आयुक्त के पद पर नियुक्त किया जाएगा और किया गया. 10 जनपथ का ऐसा स्वामिभक्त आज तक न कोई देखने न सुनने में आया. इसका उन्हें प्रधानमंत्री के पद के रूप में पुरस्कार तो मिल ही चुका है. जब श्रीमती सुषमा स्वराज नें सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल करने की बात कही तब श्री चिदंबरम के अमृत वचन फूटे कि श्री थामस के कोर्ट केस पर चर्चा हुई थी लेकिन केस चलने का मतलब यह नहीं कि वे अपराधी साबित हो चुके हैं. जब तक कोर्ट उन्हें अपराधी करार नहीं देता तब तक वे दूध के धुले बने रहेंगे.
अब देखिये एक झूठ को छिपाने के लिए कितने झूठ पर झूठ बोले जा रहे हैं और बोले जाते रहेंगे
निष्कर्ष :——जो अपने माफिक आये वह सत्य और जो विरुद्ध हो वह असत्य 

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